गहरा आँगन
इस पल का यह गहरा आँगन
इसमें तू स्पन्दित है साजन।
नयनालोकित स्मृतियों से हैं
मन भरपूर प्रीत से पावन।
दूषित विश्व पवन हो पावन
जग को अर्पित यह प्रेमाँगन।
तनहाई जो मन पर छाए -
तू मनमीत हमेशा साजन।
नयनालोकित: नयन + आलोकित: रोशनी से भरी आँखें
काव्यालय को प्राप्त: 29 Nov 2014.
काव्यालय पर प्रकाशित: 5 Apr 2018
इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह
युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?
हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।
किलकारी भरते
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इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह
भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।
नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...
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