अप्रतिम कविताएँ
तोंद
कहते हैं सब लोग तोंद एक रोग बड़ा है
तोंद घटाएँ सभी चलन यह खूब चला है।
पर मानो यदि बात तोंद क्यों करनी कम है
सुख शान्ति सम्मान दायिनी तोंद में दम है।

औरों की क्या कहूं, मैं अपनी बात बताता
बचपन से ही रहा तोंद से सुखमय नाता।
जिससे भी की बात, अदब आँखों में पाया
नाम न लें गुरु, यार, मैं पंडित 'जी' कहलाया।

आज भी ऑफिस तक में तोंद से मान है मिलता
कितना भी हो बॉस शीर्ष, शुक्ला 'जी' कहता।
मान का यह कारक, धारक में गुरुता लाती
नाम में 'जी' जुड़ जाता, नजर ज्यों तोंद पे जाती।

मत सोचो कि घटी नहीं, अंगूर सो खट्टे
केवल नर में नहीं, चलन यह देवों तक में।
तोंद लिए बस एक देवता गणपति अपने
प्रथम हैं पूजे जाते, देव पड़े हैं कितने।

ताव मूंछ का समझो, तोंद जब तन लेती है
अड़ जाती है बीच, नहीं झुकने देती है।
राम नाम गुण धाम शान्ति सब पा जाता हूँ
भोजन के उपरान्त, तोंद जब सहलाता हूँ।

सम्मुख अपने जब भी पड़ती सुन्दर नारी
हाँ, कुछ बाधक तब हो जाती तोंद हमारी।
नजर तोंद पर जैसे ही उसकी पड़ जाती
'भैया' 'अंकल' तक सीमा अपनी रह जाती।

तब अपनी यह तोंद हृदय की पीड़ा हरती
बहन बेटी पर नारि, आह भर दिल से कहती।
इस प्रकार आचरण शुद्ध रहता अपना है
पत्नी भी खुश, कहती पति भोलू कितना है।
- प्रदीप शुक्ला
विषय:
हास्य रस (7)

काव्यालय को प्राप्त: 24 Jan 2018. काव्यालय पर प्रकाशित: 8 Feb 2018

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