अप्रतिम कविताएँ
सुन सुलक्षणा
प्रभु की किरपा -
सुन सुलक्षणा
इस अंतिम बेला में तुम हो संग हमारे

बर्फ़-हुई इस देह धरे के ताप संग हैं हमने भोगे
पुरे हमारे सारे सपने जो थे हमने, सजनी, जोगे

हिरदय अक्सर
गीत हुआ था
दिन कोमल गांधार रहे थे संग तुम्हारे

आदिम छुवन पर्व की यादें हमको रह-रह टेर रही हैं
यौवन की मीठी फुहार को थकी झुर्रियाँ हेर रही हैं

कामदेव के
मंत्र हो गये
बोल सभी वे जो थे हमनें संग उचारे

पतझर हुईं हमारी साँसें, भीतर फिर भी रितु फागुन की
रास हो रहा है यह दिन भी - गूँज आ रही वंशीधुन की

नदीघाट पर
कहीं बज रही
है शहनाई - महाकाल का पर्व गुहारे
- कुमार रवीन्द्र
विषय:
जीवन (37)
प्रेम (60)
विवाह (7)
बुढ़ापा बीमारी (9)

काव्यालय पर प्रकाशित: 25 Jan 2019

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इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह


युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।

किलकारी भरते ..

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इस महीने :
'नव ऊर्जा राग'
भावना सक्सैना


ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
कोड हथियार है और डेटा ... ..

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इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह


भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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