शून्य कर दो
मुझको फिर से शून्य कर दो
तुम्हारे योग से ही तो पूर्ण हुआ था
फिर भूल गया
मेरा अस्तित्व था नगण्य
तुमसे जुड़े बिन
नए अंकों से मिल कर
मैंने मान लिया था स्वयं को
पूर्ण से भी कुछ अधिक
आज जब अन्तर्मन से भाग न सका
तो बोध हुआ ये
कि तुमने ही तो इस निष्प्राण को
जीवन दिया था
आत्म-ग्लानि से होकर विचलित
कर रहा हूँ तुमसे विनती
मुझको फिर से शून्य कर दो
हो सकूँ यदि मैं परिष्कृत
फिर भले तुम पूर्ण कर दो
पर आज मुझको शून्य कर दो
काव्यालय को प्राप्त: 23 Apr 2014.
काव्यालय पर प्रकाशित: 7 Jun 2018
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा
कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।
हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।
जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
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