अप्रतिम कविताएँ

फिर मन में ये कैसी हलचल ?
           वर्षों से जो मौन खड़े थे
           निर्विकार निर्मोह बड़े थे
उन पाषाणों से अब क्यूँकर अश्रुधार बह निकली अविरल
           फिर मन में ये कैसी हलचल ?

           निश्चल जिनको जग ने माना
           गुण-स्वभाव से स्थिर नित जाना
चक्रवात प्रचंड उठते हैं क्यूँ अंतर में प्रतिक्षण, प्रतिपल
           फिर मन में ये कैसी हलचल ?

           युग बीते जिनसे मुख मोड़ा
           जिन स्मृतियों को पीछे छोड़ा
अब क्यूँ बाट निहारें उनकी पलपल होकर लोचन विह्वल?
           फिर मन में ये कैसी हलचल ?
- अर्चना गुप्ता
Archana Gupta
Email : [email protected]
Archana Gupta
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विषय:
अन्तर्मन (14)

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 इक कविता
 फिर मन में ये कैसी हलचल ?
इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह


युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।

किलकारी भरते ..

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इस महीने :
'नव ऊर्जा राग'
भावना सक्सैना


ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
कोड हथियार है और डेटा ... ..

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इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह


भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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