एक मनःस्थिति
कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।
केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी खुले ही नहीं;
जकड़े रह गए हैं।
चाँद-तारे सब
काले पड़े हुए
झूठे सलमे-सितारों का काम हैं।
जैसे इस गुलजार गली में
कहीं कोई नहीं,
केवल नाम हैं।
जैसे हर नया दिन
एक आलसी, बे-कहे नौकर-सा
झुँझलाता आता है
और धूल-भरे आँगन को
बे-मन से झाड़ कर
चला जाता है।
काव्यालय को प्राप्त: 10 Nov 2024.
काव्यालय पर प्रकाशित: 25 Apr 2025
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा
कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।
हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।
जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..
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