अप्रतिम कविताएँ
एक मनःस्थिति
कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।

केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी खुले ही नहीं;
जकड़े रह गए हैं।

चाँद-तारे सब
काले पड़े हुए
झूठे सलमे-सितारों का काम हैं।

जैसे इस गुलजार गली में
कहीं कोई नहीं,
केवल नाम हैं।

जैसे हर नया दिन
एक आलसी, बे-कहे नौकर-सा
झुँझलाता आता है
और धूल-भरे आँगन को
बे-मन से झाड़ कर
चला जाता है।
- शान्ति मेहरोत्रा
विषय:
उदासी (19)
आम दिन (4)

काव्यालय को प्राप्त: 10 Nov 2024. काव्यालय पर प्रकाशित: 25 Apr 2025

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