अप्रतिम कविताएँ
विवशता
इस बार नहीं आ पाऊंगा

         पर निश्चय ही यह हृदय मेरा
         बेचैनी से अकुलाएगा
         कुछ नीर नैन भर लाएगा
         पर जग के कार्यकलापों से
         दाइत्वों के अनुपातों से
         हारूंगा, जीत न पाऊंगा

इस बार नहीं आ पाऊंगा

         जब संध्या की अंतिम लाली
         नीलांबर पर बिछ जाएगी
         नभ पर छितरे घनदल के संग
         जब संध्या रागिनी गाएगी
         मन से कुछ कुछ सुन तो लूंगा
         पर साथ नहीं गा पाऊंगा

इस बार नहीं आ पाऊंगा

         जब प्रातः की मंथर समीर
         वृक्षों को सहला जाएगी
         मंदिर की घंटी दूर कहीं
         प्रभु की महिमा को गाएगी
         तब जोड़ यहीं से हाथों को
         अपना प्रणाम पहुंचाऊंगा

इस बार नहीं आ पाऊंगा

         जब ग्रीष्म काल की हरियाली
         अमराई पर छा जाएगी
         कूहू कूहू कर के कोयल
         रस आमों में भर जाएगी
         रस को पीने की जिद करते
         मन को कैसे समझाऊंगा

इस बार नहीं आ पाऊंगा

         जब इठलाते बादल के दल
         पूरब से जल भर लाएंगे
         जब रंग बिरंगे पंख खोल
         कर मोर नृत्य इतराएंगे
         मेरे पग भी कुछ थिरकेंगे
         पर नाच नहीं मैं पाऊंगा

इस बार नहीं आ पाऊंगा

         जब त्यौहारों के आने की
         रौनक होगी बाजारों में
         खुशबू जानी पहचानी से
         बिखरेगी घर चौबारों में
         उस खुशबू की यादों को ले
         मैं सपनों में खो जाऊंगा

इस बार नहीं आ पाऊंगा
- राजीव स्कसेना
Rajiv Saxena
Email : [email protected]
Rajiv Saxena
Email : [email protected]
विषय:
प्रवासी (3)

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'युद्ध की विभीषिका'
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युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
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झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।

किलकारी भरते ..

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कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
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