अप्रतिम कविताएँ
श्रीहत फूल पड़े हैं
अंगारों के घने ढेर पर
यद्यपि सभी खड़े हैं
किन्तु दम्भ भ्रम स्वार्थ द्वेषवश
फिर भी हठी खड़े हैं

            क्षेत्र विभाजित हैं प्रभाव के
            बंटी धारणा-धारा
            वादों के भीषण विवाद में
            बंटा विश्व है सारा
            शक्ति संतुलन रूप बदलते
            घिरता है अंधियारा
            किंकर्त्तव्यविमूढ़ देखता
            विवश मनुज बेचारा

झाड़ कंटीलों की बगिया में
श्रीहत फूल पड़े हैं
अंगारों के बने ढेर पर .....

            वन के नियम चलें नगरी में
            भ्रष्ट हो गये शासन
            लघु-विशाल से आतंकित है
            लुप्त हुआ अनुशासन
            बली राष्ट्र मनवा लेता है
            सब बातें निर्बल से
            यदि विरोध कोई भी करता
            चढ़ जाता दल बल से

न्याय व्यवस्था ब्याज हेतु
बलशाली राष्ट्र लड़े हैं
अंगारों के बने ढेर पर .....

            दीप टिमटिमाता आशा का
            सन्धि वार्ता सुनकर
            मतभेदों को सुलझाया है
            प्रेमभाव से मिलकर
            नियति मनुज की शान्ति प्रीति है
            युद्ध विकृति दानव की
            सुख से रहना, मिलकर बढ़ना
            मूल प्रकृति मानव की

विश्वशान्ति संदेश हेतु फिर
खेत कपोत उड़े हैं
अंगारों के बने ढेर पर .....

- वीरेन्द्र शर्मा
श्रीहत - निस्तेज; शोभा रहित

Ref: Navneet Hindi Digest, April 1999
Poet's Address: D 213 Ila Apartments, B-7 Vasundhara Enclave, Delhi 110096
विषय:
समाज (31)

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इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह


युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।

किलकारी भरते ..

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इस महीने :
'नव ऊर्जा राग'
भावना सक्सैना


ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
कोड हथियार है और डेटा ... ..

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इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह


भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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