मिसरी सा अगहन
शीतकाल के चाप से
निकल रहे हैं तीर
कुहरे की चादर पहन
मौसम हुआ अधीर
ओस-ओस मोती झरे
ठिठुर रही है रात
चंदा करे चकोर से
भीगी- भीगी बात
देख गुलाबी धूप को
भूल गये सब छाँव
धूप निखारे रूप को
रूप निखारे गाँव
लुकाछिपी अब धूप की
शरमा उठे गुलाब
साँझ ढले चौपाल पर
बजने लगे रबाब
चखी मिठाई ईख की
मीठा - मीठा मन
उस पर बातें मीत की
मिसरी सा अगहन
ओझल-बोझिल बर्फ़ है
धरती पर चहुं ओर
सन्नाटों के पल सभी
लगे मचाने शोर
खुशबू की गठरी खुली
क्यारी- क्यारी फूल
कमसिन पछुवा भी चले
मौसम के अनुकूल।
रबाब - एक पारम्परिक वाद्य यंत्र। पछुआ - पश्चिम से चलने वाली हवा। सर्दियों में चलती है।
अगहन - वर्ष का नौंवा महीना अगहन अथवा अग्रहायण के नाम से जाना जाता है। इसका प्रचलित नाम मार्गशीर्ष एवम् मगसर हैं।
स्वतंत्र लेखिका एवम् स्व-प्रशिक्षित चित्रकार पारुल तोमर के शब्दों और रंगों में भारतीय संस्कृति की खुशबू रची-बसी होती है। उनका एकल कविता संग्रह
'संझा-बाती' एक चर्चित संग्रह रहा है।
काव्यालय को प्राप्त: 8 Dec 2021.
काव्यालय पर प्रकाशित: 10 Dec 2021
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा
कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।
हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।
जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
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