अप्रतिम कविताएँ
हैप्पी बड्डे गाँधी ब्रो
कोई कहता ऐसे हो
कोई कहता वैसे हो
ये सब छोड़ो और बताओ
स्वर्गलोक में कैसे हो
"सब जन एक बराबर" सुनकर
भारत का दिल ऊब गया है
सत्य,अहिंसा वाला बिस्किट
गरम चाय में डूब गया है

जहाँ-जहाँ तुम रहते,उजड़े
वे सब अड्डे गाँधी ब्रो।

दो का दूना पाँच रहे हैं
अनपढ़ कॉपी जाँच रहे हैं
जिनने तुम को पढ़ा नहीं है
तुमको गाली बाँच रहे हैं
ख़ुद कर के ख़ुद झेल रहे हैं
इक-दूजे को पेल रहे हैं
डूड तुम्हारे तीनों बंदर
छुपम-छुपाई खेल रहे हैं

दिन भर ज्ञान बाँटते रहते
महा कुबड्डे, गाँधी ब्रो।

हैप्पी बड्डे गाँधी ब्रो।
- आशु मिश्रा
बड्डे: birthday, जन्मदिवस; ब्रो: bro, दोस्त, यार; डूड: dude, लड़के या पुरुष के लिए अनौपचारिक सम्बोधन
विषय:
समाज (31)
गांधी (2)

काव्यालय को प्राप्त: 13 Aug 2022. काव्यालय पर प्रकाशित: 30 Sep 2022

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इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह


युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।

किलकारी भरते ..

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इस महीने :
'नव ऊर्जा राग'
भावना सक्सैना


ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
कोड हथियार है और डेटा ... ..

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इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह


भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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