अप्रतिम कविताएँ
भोर का पाहुन
भोर का पाहुन दुआरे पर-
भोर वनगंधी हवाओं से किरन के फूल उतरे,
और मेरी देहरी पर कुछ अबोले शब्द बन बिखरे ।
उठो मेरी पद्मगन्धिनि उठो,
चन्दन बांह पर फैले सिवारी आबवाले,
मोरपंखी घन संभालो,
मौन अधरों पर लगी पाबंदियां अपनी उठा लो ।
अभी ठहरा हुआ है भोर का पाहुन दुआरे पर,
अभी ठहरा हुआ है बांसुरी का स्वर किनारे पर ।
उठो इस देहरी के फूल से वेणी संवारूंगा,
अनागत का सजल वरदान पलकों पर उतारूंगा ।
कि कल कोई न यह कह दे-
तुम्हारे द्वार पर उतरा हुआ जो
भोर का पाहुन अनादृत था ।
- रमानाथ शर्मा
Ramanath Sharma
Email: [email protected]
Ramanath Sharma
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विषय:
उषा काल (5)

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इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
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युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
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किलकारी भरते ..

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ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
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कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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