अचानक
फिर नदी अचानक सिहर उठी
यह कौन छू गया साझं ढले
संयम से बहते ही रहना
जिसके स्वभाव में शामिल था
दिन-रात कटावों के घर में
ढहना भी जिसका लाजिम था
वह नदी अचानक लहर उठी
यह कौन छू गया सांझ ढले
छू लिया किसी सुधि के क्षण ने
या छंदभरी पुरवाई ने
या फिर गहराते सावन ने
या गंधमई अमराई ने
अलसायी धारा सँवर उठीं
यह कौन छू गया साँझ ढले
कैसा फूटा इसके जल में -
सरगम, किसने संगीत रचा
मिलना मुश्किल जिसका जग में
कैसे इसमें वह गीत बचा
सोते पानी में भँवर उठी
यह कौन छू गया साँझ ढले
-
विनोद श्रीवास्तव
Poet's Address: 75-C, Anandnagar Chakeri Road, Kanpur-1
Ref: Naye Purane, April,1998
इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह
युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?
हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।
किलकारी भरते
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इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह
भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।
नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...
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